गैलरी

Almora City Baleshwar Temple Champawat Almora Village

आइये, जाने, समझें और जुडें अपने पहाड़ से, अपने उत्तराखण्ड से, अपने अल्मोड़ा से . . .

अल्मोड़ा एक नज़र . . .


"अल्मोड़ा भारतीय राज्य अल्मोड़ा जिला का मुख्यालय है। अल्मोड़ा अपनी सांस्कृतिक विरासत, हस्तकला, खानपान, और वन्य जीवन के लिए प्रसिद्ध है।
हल्द्वानी, काठगोदाम और नैनीताल से नियमित बसें अल्मोड़ा जाने के लिए चलती हैं। ये सभी बसे भुवाली होकर जाती हैं। भुवाली से अल्मोड़ा जाने के लिए रामगढ़, मुक्तेश्वर वाला मार्ग भी है। परन्तु अधिकांश लोग गरमपानी के मार्ग से जाना ही अदिक उत्तम समझते हैं। क्योंकि यह मार्ग काफी सुन्दर तथा नजदीकी मार्ग है।भुवाली, हल्द्वानी से ४० कि.मी. काठगोदाम से ३५ कि.मी. और नैनीताल से ११ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। तथा भुवाली से अल्मोड़ा ५५ कि.मी. की दूरी पर बसा हुआ है।"

इतिहास

प्राचीन अल्मोड़ा कस्बा, अपनी स्थापना से पहले कत्यूरी राजा बैचल्देओ के अधीन था। उस राजा ने अपनी धरती का एक बड़ा भाग एक गुजराती ब्राह्मण श्री चांद तिवारी को दान दे दिया। बाद में जब बारामण्डल चांद साम्राज्य का गठन हुआ, तब कल्याण चंद द्वारा १५६८ में अल्मोड़ा कस्बे की स्थापना इस केन्द्रीय स्थान पर की गई। कल्याण चंद द्वारा चंद राजाओं के समय मे इसे राजपुर कहा जाता था। 'राजपुर' नाम का बहुत सी प्राचीन ताँबे की प्लेटों पर भी उल्लेख मिला है।

६० के दशक में बागेश्वर जिले और चम्पावत जिले नहीं बनें थे और अल्मोड़ा जिले के ही भाग थे।

भूगोल

अल्मोड़ा कस्बा पहाड़ पर घोड़े की काठीनुमा आकार के रिज पर बसा हुआ है। रिज के पूर्वी भाग को तालिफत और पश्चिमी भाग को सेलिफत के नाम से जाना जाता है। यहाँ का स्थानीय बाज़ार रिज की चोटी पर स्थित है जहाँ पर तालिफत और सेलिफत संयुक्त रूप से समाप्त होते हैं।

बाज़ार २.०१ किमी लम्बा है और पत्थर की पटियों से से ढका हुआ है। जहाँ पर अभी छावनी है, वह स्थान पहले लालमंडी नाम से जाना जाता था। वर्तमान में जहाँ पर कलक्टरी स्थित है, वहाँ पर चंद राजाओं का 'मल्ला महल' स्थित था। वर्तमान में जहाँ पर जिला अस्पताल है, वहाँ पर चंद राजाओं का 'तल्ला महल' हुआ करता था।

सिमलखेत नामक एक ग्राम अल्मोड़ा और चमोली की सीमा पर स्थित है। इस ग्राम के लोग कुमाँऊनी और गढ़वाली दोनो भाषाएँ बोल सकते हैं। पहाड़ की चोटी पर एक मंदिर है, भैरव गढ़ी।

गोरी नदी अल्मोड़ा जिले से होकर बहती है।


अल्मोड़ा जिले का खत्याड़ी कस्बा

अल्मोड़ा में एक प्रसिद्ध नृत्य अकादमी है, डांसीउस - जहाँ बहुत से भारतीय और फ्रांसीसी नर्तकों को प्रक्षिक्षण दिया गया था। इसकी स्थापना उदय शंकर द्वारा १९३८ में की गई थी। अल्मोड़ा नृत्य अकादमी को कस्बे के बाहर रानीधारा नामक स्थान पर गृहीत किया गया। इस स्थान पर से हिमालय और पूरे अल्मोड़ा कस्बे का शानदार दृश्य दिखाई देता है।

"इन पहाड़ों पर, प्रकृति के आतिथ्य के आगे मनुष्य द्वारा कुछ भी किया जाना बहुत छोटा हो जाता है। यहाँ हिमालय की मनमोहक सुंदरता, प्राणपोषक मौसम, और आरामदायक हरियाली जो आपके चारों ओर होती है, के बाद किसी और चीज़ की इच्छा नहीं रह जाती। मैं बड़े आश्चर्य के साथ ये सोचता हूँ की क्या विश्व में कोई और ऐसा स्थान है जो यहाँ की दृश्यावली और मौसम की बराबरी भी कर सकता है, इसे पछाड़ना तो दूर की बात है। यहाँ अल्मोड़ा में तीन सप्ताह रहने के बात मैं पहले से अधिक आश्चर्यचकित हूँ की हमारे देश के लोग स्वास्थ्य लाभ के लिए यूरोप क्यों जाते है।" - महात्मा गांधी

२००१ की भारतीय जनगणना के अनुसार, अल्मोड़ा जिले की जनसंख्या ६,३०,५६७ है।

मुख्य अंश

अल्मोड़ा के प्रमुख पर्यटन स्थल

यहां कुछ ऐसे भी मंदिर है जिनकी आस्था की लोकप्रियता विदेशों तक में मशहूर है। यहां के पावन तीर्थो के कारण ही इसे देव भूमि पुकारा जाता है और यहां के विशेष मंदिर और उनकी कथाएं पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है।

पर्यटन स्थल - भूला बिसरा भारत - कटारमल का सूर्य मंदिर अल्मोड़ा, उत्तराखंड
कोणार्क जहाँ पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है।   - रवीन्द्रनाथ टैगोर 

कोणार्क का सूर्य मंदिर अपनी बेजोड़ वास्तुकला के लिए भारत ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है.
भारत के उड़ीसा राज्य में स्थित यह पहला सूर्य मंदिर है जिसे भगवान सूर्य की आस्था का प्रतीक माना जाता है. ऐसा ही एक दूसरा सूर्य मंदिर उत्तराखण्ड राज्य के कुमांऊ मण्डल के अल्मोड़ा जिले के कटारमल गांव में है.
आईये जाने इस मंदिर के बारें में . . .
  • यह मंदिर 800 वर्ष पुराना एवं अल्मोड़ा नगर से लगभग 17 किमी की दूरी पर पश्चिम की ओर स्थित उत्तराखण्ड शैली का है. अल्मोड़ा-कौसानी मोटर मार्ग पर कोसी से ऊपर की ओर कटारमल गांव में यह मंदिर स्थित है.
  • यह मंदिर हमारे पूर्वजों की सूर्य के प्रति आस्था का प्रमाण है, यह मंदिर बारहवीं शताब्दी में बनाया गया था, जो अपनी बनावट एवं चित्रकारी के लिए विख्यात है. मंदिर की दीवारों पर सुंदर एवं आकर्षक प्रतिमायें उकेरी गई हैं. जो मंदिर की सुंदरता में चार चांद लगा देती हैं. यह मंदिर उत्तराखण्ड के गौरवशाली इतिहास का प्रमाण है.
  • महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इस मन्दिर की भूरि-भूरि प्रशंसा की. उनका मानना है कि यहाँ पर समस्त हिमालय के देवतागण एकत्र होकर पूजा-अर्चना करते रहे हैं. उन्होंने यहाँ की दीवारों पर उकेरी गई मूर्तियों एवं कला की प्रशंसा की है. इस मन्दिर में सूर्य पद्मासन लगाकर बैठे हुए हैं. सूर्य भगवान की यह मूर्ति एक मीटर से अधिक लम्बी और पौन मीटर चौड़ी भूरे रंग के पत्थर से बनाई गई है. यह मूर्ति बारहवीं शताब्दी की बतायी जाती है. कोणार्क के सूर्य मन्दिर के बाद कटारमल का यह सूर्य मन्दिर दर्शनीय है. कोणार्क के सूर्य मन्दिर के बाहर जो झलक है, वह कटारमल के सूर्य मन्दिर में आंशिक रूप में दिखाई देती है.
  • देवदार और सनोबर के पेड़ों से घिरे अल्मोड़ा की पहाड़ियों में स्थित कटारमल का सूर्यमंदिर 9 वीं सदी की वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है. कस्तूरी साम्राज्य में इसे बनवाया गया था.
पूर्वजों की आस्था का केन्द्र , कला का अद्भुत सौंदर्य
इतिहास 
कटारमल देव (1080-90 ई०) ने अल्मोड़ा से लगभग 7 मील की दूरी पर बड़ादित्य (महान सूर्य) के मंदिर का निर्माण कराया था. उस गांव को, जिसके निकट यह मंदिर है, अब कटारमल तथा मंदिर को कटारमल मंदिर कहा जाता है. यहां के मंदिर पुंज के मध्य में कत्यूरी शिखर वाले बड़े और भव्य मंदिर का निर्माण राजा कटारमल देव ने कराया था. इस मंदिर में मुख्य प्रतिमा सूर्य की है जो 12वीं शती में निर्मित है. इसके अलावा शिव-पार्वती, लक्ष्मी-नारायण, नृसिंह, कुबेर, महिषासुरमर्दिनी आदि की कई मूर्तियां गर्भगृह में रखी हुई हैं.
मंदिर में सूर्य की औदीच्य प्रतिमा है, जिसमें सूर्य को बूट पहने हुये खड़ा दिखाया गया है. मंदिर की दीवार पर तीन पंक्तियों वाला शिलालेख, जिसे लिपि के आधार पर राहुल सांकृत्यायन ने 10वीं-11वीं शती का माना है, जो अब अस्पष्ट हो गया है. इसमें राहुल जी ने ...मल देव... तो पढ़ा था, सम्भवतः लेख में मंदिर के निर्माण और तिथि के बारे में कुछ सूचनायें रही होंगी, जो अब स्पष्ट नहीं हैं. मन्दिर में प्रमुख मूर्ति बूटधारी आदित्य (सूर्य) की है, जिसकी आराधना शक जाति में विशेष रूप से की जाती है. इस मंदिर में सूर्य की दो मूर्तियों के अलावा विष्णु, शिव, गणेश की प्रतिमायें हैं. मंदिर के द्वार पर एक पुरुष की धातु मूर्ति भी है, राहुल सांकृत्यायन ने यहां की शिला और धातु की मूर्तियों को कत्यूरी काल का बताया है.

कटारमल सूर्य मंदिर
इस सूर्य मंदिर का लोकप्रिय नाम बारादित्य है. पूरब की ओर रुख वाला यह मंदिर कुमाऊं क्षेत्र का सबसे बड़ा और सबसे ऊंचा मंदिर है. माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण कत्यूरी वंश के मध्यकालीन राजा कटारमल ने किया था, जिन्होंने द्वाराहाट से इस हिमालयीय क्षेत्र पर शासन किया. यहां पर विभिन्न समूहों में बसे छोटे-छोटे मंदिरों के 50 समूह हैं. मुख्य मंदिर का निर्माण अलग-अलग समय में हुआ माना जाता है. वास्तुकला की विशेषताओं और खंभों पर लिखे शिलालेखों के आधार पर इस मंदिर का निर्माण 13वीं शदी में हुआ माना जाता है.
इस मंदिर में सूर्य पद्मासन मुद्रा में बैठे हैं, कहा जाता है कि इनके सम्मुख श्रद्धा, प्रेम व भक्तिपूर्वक मांगी गई हर इच्छा पूर्ण होती है. इसलिये श्रद्धालुओं का आवागमन वर्ष भर इस मंदिर में लगा रहता है, भक्तों का मानना है कि इस मंदिर के दर्शन मात्र से ही हृदय में छाया अंधकार स्वतः ही दूर होने लगता है और उनके दुःख, रोग, शोक आदि सब मिट जाते हैं और मनुष्य प्रफुल्लित मन से अपने घर लौटता है. कटारमल गांव के बाहर छत्र शिखर वाला मंदिर बूटधारी सूर्य के भव्य व आकर्षक प्रतिमा के कारण प्रसिद्ध है. यह भव्य मंदिर भारत के प्रसिद्ध कोणार्क के सूर्य मंदिर के पश्चात दूसरा प्रमुख मंदिर भी है. स्थानीय जनश्रुति के अनुसार कत्यूरी राजा कटारमल्ल देव ने इसका निर्माण एक ही रात में करवाया था. यहां सूर्य की बूटधारी तीन प्रतिमाओं के अतिरिक्त विष्णु, शिव और गणेश आदि देवी-देवताओं की अनेक मूर्तियां भी हैं.
ऎसा कहा जाता है कि देवी-देवता यहां भगवान सूर्य की आराधना करते थे, सुप्रसिद्ध साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन भी मानते थे कि समस्त हिमालय के देवतागण यहां एकत्र होकर सूर्य की पूजा-अर्चना करते थे. प्राचीन समय से ही सूर्य के प्रति आस्थावान लोग इस मंदिर में आयोजित होने वाले धार्मिक कार्यों में हमेशा बढ़-चढ़ कर अपनी भागीदारी दर्ज करवाते हैं, क्योंकि सूर्य सभी अंधकारों को दूर करते हैं, इसकी महत्ता के कारण इस क्षेत्र में इस मंदिर को बड़ा आदित्य मंदिर भी कहा जाता है. कलाविद हर्मेन गोयट्ज के अनुसार मंदिर की शैली प्रतिहार वास्तु के अन्तर्गत है।
इस मंदिर की स्थापना के विषय में विद्वान एकमत नहीं हैं, कई इतिहासकारों का मानना है कि समय-समय पर इसका जीर्णोद्धार होता रहा है, लेकिन वास्तुकला की दृष्टि से यह सूर्य मंदिर 21 वीं शती का प्रतीत होता है. वैसे इस मंदिर का निर्माण कत्यूरी साम्राज्य के उत्कर्ष युग में 8वीं - 9वीं शताब्दी में हुआ था, तब इस मंदिर की काफी प्रतिष्ठा थी और बलि-चरु-भोग के लिये मंदिर मेम कई गांवों के निवासी लगे रहते थे.
इस ऎतिहासिक प्राचीन मंदिर को सरकार ने प्राचीन स्मारक तथा पुरातत्व स्थल घोषित कर राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित कर दिया है. मंदिर में स्थापित अष्टधातु की प्राचीन प्रतिमा को मूर्ति तस्करों ने चुरा लिया था, जो इस समय राष्ट्रीय पुरातत्व संग्रहालय, नई दिल्ली में रखी गई है, साथ ही मंदिर के लकड़ी के सुन्दर दरवाजे भी वहीं पर रखे गये हैं, जो अपनी विशिष्ट काष्ठ कला के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं.
 
कैसे पहुंचे
कटारमल सूर्य मन्दिर तक पहुँचने के लिए अल्मोड़ा से रानीखेत मोटरमार्ग के रास्ते से जाना होता है. अल्मोड़ा से 14 किमी जाने के बाद 3 किमी पैदल चलना पड़ता है. यह मन्दिर 1554 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है. अल्मोड़ा से कटारमल मंदिर की कुल दूरी 17 किमी के लगभग है.

उत्तराखंड के ऐसे चमत्कारिक मंदिरों में से एक है अल्मोड़ा जिले में स्थिति चितई गोलू देवता का मंदिर। अल्मोड़ा जिले में दुनिया का अपने आप में ऎसा ही एक अनोखा चित्तई स्थित गोलू देव का मन्दिर है। जो कि हमारे ईष्ट देवता भी कहलाते है जिसमे से एक है , गोलू देवता। जिला मुख्यालय अल्मोड़ा से आठ किलोमीटर दूर पिथौरागढ़ हाईवे पर न्याय के देवता कहे जाने वाले गोलू देवता का मंदिर स्थित है, इसे चितई ग्वेल भी कहा जाता है | सड़क से चंद कदमों की दूरी पर ही एक ऊंचे तप्पड़ में गोलू देवता का भव्य मंदिर बना हुआ है। मंदिर के अन्दर घोड़े में सवार और धनुष बाण लिए गोलू देवता की प्रतिमा है। उत्तराखंड के देव-दरबार महज देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना, वरदान के लिए ही नहीं अपितु न्याय के लिए भी जाने जाते हैं | यह मंदिर कुमाऊं क्षेत्र के पौराणिक भगवान और शिव के अवतार गोलू देवता को समिर्पत है ।

कसार देवी उत्तराखण्ड में अल्मोड़ा के निकट एक गाँव है। यह कसार देवी मंदिर के कारण प्रसिद्ध है। मंदिर दूसरी शताब्दी का है। स्वामी विवेकानन्द १८९० में यहाँ आये थे। इसके अलावा अनेकों पश्चिमी साधक यहाँ आये और रहे। उत्तराखंड में मौजूद माता के इस मंदिर के रहस्य ने दुनियाभर के वैज्ञानिकों की नींद उड़ा रखी है। उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में स्थित कसारदेवी मंदिर की 'असीम' शक्ति से नासा के वैज्ञानिक भी हैरान हैं। चुंबकीय शक्तियों की वजह से खास है कसार देवी मंदिर।

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

शुभ दीपावली

http://s273.photobucket.com/albums/jj202/my99/profileabc/img/en-hn/diwali-glitters/diwali-glitters-8.gif

आपको और आपके समस्त परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं...

 
















दीपावली का अर्थ है दीपों की पंक्ति। दीपावली शब्द ‘दीप’ एवं ‘आवली’ की संधिसे बना है। आवली अर्थात पंक्ति, इस प्रकार दीपावली शब्दका अर्थ है, दीपोंकी पंक्ति । भारतवर्षमें मनाए जानेवाले सभी त्यौहारों में दीपावलीका सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’ यह उपनिषदोंकी आज्ञा है। इसे सिख, बौद्धजैन धर्म के लोग भी मनाते हैं। माना जाता है कि दीपावली के दिन अयोध्या के राजा श्री रामचंद्र अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात लौटे थे। अयोध्यावासियों का ह्रदय अपने परम प्रिय राजा के आगमन से उल्लसित था। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीए जलाए । कार्तिक मास की सघन काली अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी। तब से आज तक भारतीय प्रति वर्ष यह प्रकाश-पर्व हर्ष व उल्लास से मनाते हैं। यह पर्व अधिकतर ग्रिगेरियन कैलन्डर के अनुसार अक्तूबर या नवंबर महीने में पड़ता है। दीपावली दीपों का त्योहार है। इसे दीवाली या दीपावली भी कहते हैं। दीवाली अँधेरे से रोशनी में जाने का प्रतीक है। भारतीयों का विश्वास है कि सत्य की सदा जीत होती है झूठ का नाश होता है। दीवाली यही चरितार्थ करती है- असतो माऽ सद्गमय , तमसो माऽ ज्योतिर्गमय। दीपावली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व है। कई सप्ताह पूर्व ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती है। लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई का कार्य आरंभ कर देते हैं। घरों में मरम्मत, रंग-रोगन,सफ़ेदी आदि का कार्य होने लगता हैं। लोग दुकानों को भी साफ़ सुथरा का सजाते हैं। बाज़ारों में गलियों को भी सुनहरी झंडियों से सजाया जाता है। दीपावली से पहले ही घर-मोहल्ले, बाज़ार सब साफ-सुथरे व सजे-धजे नज़र आते हैं।

अधिक जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें . . . दीपावली का इतिहास 

रविवार, 22 अगस्त 2010

अल्मोड़ा संस्कृति एवं लोककला का एक मंच. . .



कैची धाम - "अल्मोड़ा के समीप बाबा नीम करोली का कैची धाम. . ."

कैची धाम

 नीम करोली बाबा का कैंची धाम ......... मेरी हाल ही की पहाड़ यात्रा देवभूमि के ऐसे ही रमणीय स्थानों में बाबा नीम करोली महाराज का कैची धाम है जो राज्य में आने वाले पर्यटकों को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है यहाँ पहुचकर सुकून की प्राप्ति होती है और सारे बिगडे काम नीम करोली बाबा की कृपा से बन जाते है. सरोवर नगरी नैनीताल से २० किलोमीटर की दूरी पर अल्मोडा राजमार्ग पर हरी भरी घाटियों पर स्थित इस धाम में वर्ष भर सेलानियो का ताँता लगा रहता है.

रविवार, 15 अगस्त 2010

सभी पाठकों को स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक बधाईयाँ ...

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दुस्तां हमारा
हम बुलबले है उसकी वो गुलसितां हमारा
परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमां का
वो सन्तरी हमारा, वो पासबां हमारा
गोदी मे खेलती है, उसकी हजारो नदियाँ
गुलशन है उसके दम से, रश्क ए जिनां हमारा
मजहब नही सिखाता, आपस मे बैर रखना
हिन्दी है हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा

जय हिन्द जय हिन्द जय हिन्द



मंगलवार, 8 जून 2010

एक मार्चिस की तिल्ली में जब रत्ती भर गंधक इतनी आग उगल सकती है तो हम क्यों नहीं.

मंगलवार, 4 मई 2010

कैसे बनी भारत की पहली फ़िल्म

वर्ष 1914 भारत का वो दौर था जब मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे और उसके बाद गु़लाम भारत में मानो एक क्रांति आ गई थी. ये वही साल था जब धुंडिराज गोविंद फाल्के नाम का एक शख़्स भी लंदन से मुंबई लौटा था.इतिहास मोहनदास करमचंद गांधी को आज राष्ट्रपिता के तौर पर याद करता है तो धुंडिराज गोविंद फाल्के यानी दादा साहेब फाल्के भारत में सिनेमा के पितामाह कहलाए.

भुला दिया दादा साहेब फाल्के को?

नासिक के पास त्रिंबकेश्वर नामक गांव में 30 अप्रेल 1870 को धुंडिराज गोविन्द फाल्के का जन्म हुआ.उनकी उम्र करीब 41 वर्ष की रही होगी जब लक्ष्मी प्रींटिंग प्रेस की भागीदारी से उन्हें अन्यायपूर्ण ढंग से अलग कर दिया गया. उसके बाद वे दोपहर के वक़्त बगीचे में अपना टिफिन खोलकर भोजन करने जा रहे थे कि अखबार का एक टुकड़ा हवा में उड़कर उनके पास आ गिरा.इसमें उन्होंने ‘द लाइफ आइफ़ क्राइस्ट’ नामक कथा फ़िल्म के प्रदर्शन का विज्ञापन देखा और शाम को आठ आने का टिकिट लेकर उन्होंने फिल्म देखी!

मंगलवार, 30 मार्च 2010

श्री हनुमान जयंती (हनुमान जयंती की हार्दिक शुभकामनाएँ.)

आज हनुमान जयंती है,
आदरणीय मित्रो, आप सभी को श्री हनुमान जयंती की हार्दिक शुभकामनाएँ.
हनुमान जयंती आज, मंदिरों में विशेष आयोजन.हनुमान जयंती के अवसर पर हनुमान मंदिरों में विशेष पूजा पाठ किया जाएगा व कई प्रकार के कार्यक्रम आयोजित होगें। मंदिरों में सुंदरकांड का पाठ आयोजित किया जाएगा। श्री बजरंग बली का विशेष श्रृंगार किया जाएगा। कई मंदिरों में मेला भरेगा व भजन संध्या का आयोजन किया जाएगा।

पवनपुत्र हनुमान का जन्मोत्सव इस बार अमृतयोग में मनाया जाएगा। शुक्रवार 6 अप्रैल को हस्त नक्षत्र होने से यह योग निर्मित हो रहा है। मारुतिनंदन को चोला चढ़ाने से जहां सकारात्मक ऊर्जा मिलती है वहीं बाधाओं से मुक्ति भी मिलती है। हनुमानजी को भक्ति और शक्ति का बेजोड़ संगम बताया गया है।

हनुमान जी के बारह नाम का स्मरण करने से ना सिर्फ उम्र में वृद्धि होती है बल्कि समस्त सांसारिक सुखों की प्राप्ति भी होती है। बारह नामों का निरंतर जप करने वाले व्यक्ति की श्री हनुमानजी महाराज दसों दिशाओं एवं आकाश-पाताल से रक्षा करते हैं। प्रस्तुत है केसरीनंदन बजरंग बली के 12 चमत्कारी और असरकारी नाम :
हनुमान जी के 12 असरकारी नाम
1 ॐ हनुमान
2 ॐ अंजनी सुत
3 ॐ वायु पुत्र
4 ॐ महाबल
5 ॐ रामेष्ठ
6 ॐ फाल्गुण सखा
7 ॐ पिंगाक्ष
8 ॐ अमित विक्रम
9 ॐ उदधिक्रमण
10 ॐ सीता शोक विनाशन
11 ॐ लक्ष्मण प्राण दाता
12 ॐ दशग्रीव दर्पहा
नाम की अलौकिक महिमा
- प्रात: काल सो कर उठते ही जिस अवस्था में भी हो बारह नामों को 11 बार लेनेवाला व्यक्ति दीर्घायु होता है।
- नित्य नियम के समय नाम लेने से इष्ट की प्राप्ति होती है।
- दोपहर में नाम लेनेवाला व्यक्ति धनवान होता है। दोपहर संध्या के समय नाम लेनेवाला व्यक्ति पारिवारिक सुखों से तृप्त होता है।
- रात्रि को सोते समय नाम लेनेवाले व्यक्ति की शत्रु से जीत होती है।
- उपरोक्त समय के अतिरिक्त इन बारह नामों का निरंतर जप करने वाले व्यक्ति की श्री हनुमानजी महाराज दसों दिशाओं एवं आकाश पाताल से रक्षा करते हैं।
- लाल स्याही से मंगलवार को भोजपत्र पर ये बारह नाम लिखकर मंगलवार के दिन ही ताबीज बांधने से कभी ‍सिरदर्द नहीं होता। गले या बाजू में तांबे का ताबीज ज्यादा उत्तम है। भोजपत्र पर लिखने के काम आनेवाला पेन नया होना चाहिए।
हनुमान मंत्र :
श्री हनुमंते नम:
अतुलित बलधामं, हेमशैलाभदेहं।
दनुजवनकृशानुं, ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुण निधानं, वानराणामधीशं।
रघुपतिप्रिय भक्तं, वातजातं नमामि।।

मंगलवार, 16 मार्च 2010

अल्मोड़ा में नवरात्र पूजन

अल्मोड़ा भारतीय राज्य उत्तराखण्ड का महत्वपूर्ण नगर है। यह अल्मोड़ा जिला का मुख्यालय है।
अल्मोड़ा के ऊंचे पहाड़ों से आज भी सुनाई देती है महावीर की महिमा. वहां आज भी मौजूद है वो मंदिर, जहां बैकुंठ धाम जाने से पहले राम औऱ हनुमान का हुआ मिलन और जहां हनुमान को मिला था चिरंजीवी होने का वरदान.

संवप्सर प्रतिपदा
चैत शुक्ल पड़वा वर्ष के आरंभ में होती है। इस दिन कहीं-कहीं नवदुर्गा की मूर्ति स्थापित की जाती है। हरेला भी बोया जाता है। देवी के उपासक नवरात्र-व्रत करते हैं। चंडी का पाठ होता है। संवत्सर प्रतिपदा को पंडितों से पंचांग का शुभाशुभ फल सुनते हैं।

चैत्राष्मी को देवी-भक्त व्रत तथा पाठ पूजा करते हैं।

रामनौमी

विधवा स्रियाँ तथा राम-भक्त लोग व्रत-पूजन स्वयं करते तथा पुरोहितों व ब्राह्मणों द्वारा कराते हैं।

दशाई या दशहरा
चैत सुदी दसमी को देवताओं में हरेला चढ़ाकर स्वयं सिर पर चढ़ाते हैं। नवरात्रि के व्रत को पूर्ण करके दान-दक्षिणा, ब्रह्म-भोज भी कराया जाता है।

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

पानी के बिना भी त्यौहार रंगीला

होली की रंग भरी शुभकामनायें!


यू तो भारत में कई त्यौहार मनाये जाते हैं परन्तु होली एक ऐसा त्यौहार है जो सभी धर्म व संप्रदाय के लोगों द्वारा उत्साह पूर्वक मनाया जाता है। होली का जिक्र आते ही आंखों के आगे एक सतरंगी माहौल छा जाता है। रंग-बिरंगे अबीर ,गुलाल ,पिचकारी .गुब्बारे हो या फिर गुजिया, मिठाई आदि पकवान ये सभी होली आते ही अपने अस्तित्व का एहसास कराते हैं।

होली का त्यौहार इसलिए भी अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इसे प्रेम और भाईचारे का पर्व कहा जाता है। कहते हैं कि होली के दिन सभी लोग अपने पुराने गिले शिकवे भुलाकर एक-दूसरे के गले लग जाते हैं । छोटा हो या बड़ा ,बूढा हो या सभी वर्ग के लोग इस त्यौहार का बर्पूर आनंद लेते हैं।

इस रंगीन त्यौहार से कई पौराणिक कथाएँ भी जुड़ी हैं। इनमें से भक्त प्रहलाद कि कथा सर्वविदित है। कहते हैं कि इस दिन ह्रिन्यकश्य्प कि बहिन होलिका ने भक्त प्रहलाद को अपनी गोद में बिठाकर अग्नि में जलाने कि चेष्टा की थी। ,किंतु वह प्रहलाद को तो न जला सकी अपितु स्वयं अग्नि में जलकर भस्म हो गई। यहाँ बुराई पर अच्छाई कि जीत का उदहारण देखने को मिलता है। होलिका बुराई का प्रतीक है और प्रहलाद अच्छाई का प्रतीक है। इसलिए आज देशभर में होली के दिन होलिका दहन करने की प्रथा है। होलिका की अग्नि में सभी बुराइयों को दहन कर स्वच्छ और पवित्र आचरण का आवाहन किया जाता है।

होली की प्रसिद्धि का एक कारण फिल्मों में इस त्यौहार को सुंदर दृश्यों व गानों से सजाकर दिखाया जाना भी है। कितने ही संगीतकारों और लेखकों ने होली पर्व की रंग-बिरंगी झलकियों को शब्दों और सुरों में पिरोकर इसे और भी रूमानी बना दिया है।

* होली के दिन दिल खिल जाते हैं रंगों में रंग मिल जाते हैं
* पिया संग खेलूँ होली फागुन आयो रे
* होली आई रे कन्हाई रंग छलके सुनादे जरा बांसुरी
* तन रंग लो जी आज मन रंगलो ,तन रंगलो
* रंग बरसे भीगे चुनरवाली रंग बरसे


ये सभी गीत हमें होली के रंग में सराबोर कर देते हैं।

होली के पर्व को कृष्ण भक्ति से भी जोड़ा जाता है। होली आते ही मथुरा ,वृन्दावन और बरसाने की रंगत देखने लायक होती है। बरसाने की लठ्ठमार होली हो या फिर मथुरा वृन्दावन में खेली जाने वाली फूलों की होली , ये आज भी कृष्ण भक्ति और रासलीला की झलक दिखाती हैं।

फागुन का महीना हो ,रंगों की बौछार हो और उत्तरांचल की होली का जिक्र न किया जाए ,हो ही नही सकता । यू उत्तराँचल छोटा सा राज्य है किंतु यहाँ होली की छटा देखते ही बनती है। फागुन का महीना लगते ही यहाँ होली की धूम शुरू हो जाती है। लोग टोली बनाकर घर-घर में जाकर होली के गीत गाते हैं। इन होली के गीतों में प्रभु राम-कृष्ण के भजन शामिल होते हैं। गाने की तर्ज के हिसाब से गीतों को खड़ी होली और बैठी होली आदि भागों में विभाजित किया जाता है। यहाँ लोग होली पर एक पेड़ पर चीर बांधते हैं और होलिका दहन के दिन उस पेड़ को जलाया जाता है।अगले दिन अबीर-गुलाल से सराबोर लोग नाचते गाते हुए घर-घर जाकर मंगल गीत गाते हैं और प्रेम व भाईचारे को बढावा देते हैं।

हांलाकि आज हमारे परिवेश में काफी बदलाव आ गया है । लोग अपनी सांस्कृतिक धरोहरों से दूर होते जा रहे हैं। फिर भी ऐसे में होली ,दिवाली आदि तीज-त्यौहार एक दिए की तरह हैं जो अंधेरे में रौशनी की किरण बन फैल रहे हैंऔर हमारी संस्कृति व सभ्यता को जीवित किए हुए हैं। ---------------

अंधेरे में रौशनी की किरण बन फैल जाते हैं,

ये त्यौहार ही हमें हमारी संस्कृति का एहसास कराते हैं ।

करीब रहकर भी जो न मिल सके अपनों से ,

होली दिवाली के पर्व उन्हें करीब लाते हैं।

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010


देवनागरी बोल :

श : होली आयी रे कन्हाई, होली आयी रे
होली आयी रे कन्हाई
रंग छलके सुना दे ज़रा बांसरी

को (स्त्री) : होली आयी रे कन्हाई
रंग छलके सुना दे ज़रा बांसरी

को (पु) : होली आयी रे, आयी रे, होली आयी रे

श : बरसे गुलाल रंग मोरे आंगनवा
अपने ही रंग में रंग दे मोहे सजनवा

को (पु) : हो देखो नाचे मोरा मनवा

को (स्त्री) : बरसे गुलाल रंग मोरे आंगनवा, जी मोरे आंगनवा
अपने ही रंग में रंग दे मोहे सजनवा

श : तोरे कारन घरसे आई, तोरे कारन हो
तोरे कारन घरसे आई
हूँ निकलके सुना दे ज़रा बांसरी

को (स्त्री) : होली आयी रे कन्हाई
रंग छलके सुना दे ज़रा बांसरी

को (पु) : होली आयी रे, आयी रे, होली आयी रे

श : छुटे ना रंग ऐसी रंग दे चुनरिया
धोबन ये धोये चाहे सारी उमरिया

को (पु) : हो मन को रंग देगा साँवरिया

को (स्त्री) : छुटे ना रंग ऐसी रंग दे चुनरिया, जी
रंग दे चुनरिया
धोबन ये धोये चाहे सारी उमरिया

श : मोहे भाये ना हरजाई, मोहे भाये ना
मोहे भाये ना हरजाई
रंग हलके सुना दे ज़रा बांसरी

को (स्त्री) : होली आयी रे कन्हाई
रंग छलके सुना दे ज़रा बांसरी
जोगी आयो सहर में व्योपारी........
जोगी आयो सहर में व्योपारी........
इस व्योपारी को भूक बहुत है ...... पोरिया पके दे रे नथ वाली ........
जोगी आयो सहर में व्योपारी.......
इस व्योपारी को प्यास बहुत है .... पनिया पिला दे रे नथ वाली .....
जोगी आयो सहर में व्योपारी........

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010


रंगों-का-त्यौहार-होली-आयी



जय हनुमान

आओ सब मिलकर होली का त्यौहार मनाये ।

होली या फगुआ (भोजपुरी) वसंत ॠतु मेँ मनाया जाने वाला एक लोकप्रिय भारतीय त्यौहार है।यह पर्व हिन्दू तिथि के हिसाब से फाल्गुन माह की अंतिम तिथि (पूर्णिमा) को मनाया जाता है। यह उत्सव चैत्र महीने के आरंभ का भी द्योतक है। चैत्र हिन्दू पञ्चांग का प्रथम मास होता है, अतः होली हिन्दुओं के लिये नये वर्ष का उत्सव भी है। होली को रगों का त्यौहार कहते हैं। होली पारंपरिक तौर पर दो दिन मनायी जाती है। पहले दिन रात को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते है। दूसरे दिन, जिसे धुरड्डी(धुलेंडी) भी कहा जात है, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यदि फ़ेंकते हैं। ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं, और घर घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। होली पर कुछ लोग भांग भी पीते हैं, जो कि एक नशीला पदार्थ होता है। इसे ठंढाई में मिला कर या सीधे गोलियों के रूप में लिया जाता है। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैँ, गले मिलते हैं और मिठाईयाँ खिलाते हैं।





रंगों के त्यौहार में सभी रंगों की हो भरमार
डेढ़ सारी खुशियों से भरा हो आपका संसार
यही दुआ है बाबा सांई से हर बार
होली मुबारक हो।

रंग उड़ाऐ पिचकारी
रंग से रंग जाये दुनिया सारी
होली के रंग आपके जीवन को रंग दें
यह शुभकामना है हमारी

पिचकारी की धार, गुलाल की बौछार
ईश्वर का प्यार, यही है होली का त्यौहार

Wishing you and your family a very happy and colorful holism.


ॐ।।

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएं

आपको और आपके परिवार को नव संवत्सर 2067 व नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएं.

असुरो के अत्याचारों से देवता बड़े दुखी त्रसित थे. देवताओं को ब्रम्हा जी ने बताया की असुरराज की मृत्यु किसी कुँआरी कन्या के हाथो से होगी . समस्त देवताओं के शक्ति तेज प्रताप से जगतजननी की उत्पत्ति हुई. देवी का मुख भगवान शंकर के तेज से हुआ . यमराज के तेज से मस्तक और केश, विष्णु के तेज से भुजाये, चंद्रमा के तेज से स्तन, इन्द्र के तेज से कमर और वरुण के तेज से जंघा पृथ्वी के तेज से नितम्ब, ब्रम्हा के तेज से चरण, सूर्य के तेज से दोनों पोरों की अंगुलियां, प्रजापति के तेज से दांत, अग्नि के तेज से दोनों नेत्र, संध्या के तेज से भौहे, वायु के तेज से कान और देवताओं के तेज से देवी के भिन्न भिन्न अंग बने.

महाशक्ति को शिवाजी ने त्रिशूल, लक्ष्मी ने कमल का फूल, विष्णु ने चक्र, अग्नि ने शक्ति और वाणों के तरकश, प्रजापति ने स्फटिक की माला, वरुण ने दिव्य शंख, हनुमान ने गदा, इन्द्र ने वज्र, भगवान राम ने धनुष बाण, वरुणदेव ने पाश और वाण, ब्रम्हाजी ने चारो वेद, हिमालय पर्वत ने सवारी करने के लिए सिह दिया और इसके अतिरिक्त समुंद्र ने उज्जवल हार, चूडामणि ,दो कुंडल, पैरो के नुपुर और ढेरो अंगूठियाँ माँ को भैट किये . इन सभी वस्तुओ को माँ जगदम्बे भवानी ने अपने अठारह हाथो में धारण किया. माँ दुर्गा इस धरा की आद्य शक्ति है अर्थात आदिशक्ति है.

पितामह ब्रम्हा भगवान विष्णु और भगवान शंकर उन्ही की शक्ति से स्रष्टि का की उत्पत्ति पालन और पोषण और संहार करते है अन्य देवता भी उन्ही की शक्ति से उर्जाकृत होकर कार्य करते है. नवरात्रि पर्व के प्रथम दिन माँ दुर्गा के प्रथम रूप शैलपुत्री के रूप में पूजा जाता है उन्होंने हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया था इसीलिए इन्हें शैलपुत्री के नाम से जाना जाता है. इनका वाहन वृषभ है, इनके बाए हाथ में कमल है और दांये हाथ में त्रिशूल होता है इन्हें सती के नाम से भी जाना जाता है. एक बार दक्ष प्रजापति ने एक यज्ञ किया जिसमे भगवान शंकर को नहीं बाला गया था.

सती यज्ञ में जाने के लिए बैचेन थी. भगवान को नहीं बुलाया गया था तो वे नहीं गए पर उन्होंने सती को यज्ञ में जाने दिया. उनकी बहिनों ने उनका तिरस्कार किया और खूब सती का उपहास उड़ाया उनके पिता ने भी उन्हें अपमानजनक शब्द कहे. वे अपने पति का अपमान नहीं सह सकी और उन्होंने स्वयं को योगाग्नि द्वारा भस्म कर लिया इससे दुखित होकर भगवान शंकर ने उस यज्ञ का विध्वंस कर दिया. इन्ही सती ने अगले जन्म में शैलराज हिमालय के यहाँ जन्म लिया और शैलपुत्री कहलाई. इनका महत्त्व और शक्ति अनंत है.

ॐ दुर्गा देव्यो नमः
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता नमोस्तुते नमोस्तुते नमो नमः

लोकप्रिय पोस्ट